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हल्दीघाटी तीसरा सर्ग Haldighati Sarg 3 – Shyam Narayan Pandey

Haldighati Sarg 3 by Shyam Narayan Pandey: पिछले सर्ग में आपने अकबर के कृत्यों और स्त्री के प्रति उसके प्रेम-वर्णन के बारे में पढ़ा। Haldighati Poem के इस तीसरे सर्ग में आप अकबर की भव्यता और उसके मेवाड़-विजय के चाह के बारे में पढ़ेंगे। साथ ही वह रजपूती शान और राणा की गरिमा तथा उनके युद्ध-कौशल को भी जानना चाहता है। अकबर की गौरवगाथा के वर्णन की काव्यगत पँक्तियों के साथ शुरू होता है महाकवि श्याम नारायण पाण्डेय जी के द्वारा लिखित सुप्रसिद्ध खण्डकाव्य हल्दीघाटी का तृतीय सर्ग।

हल्दीघाटी तीसरा सर्ग

📌काव्यहल्दीघाटी
📁सर्गतीसरा
✍️रचयिताश्याम नारायण पाण्डेय
🏷️प्रकारखण्डकाव्य

सम्पूर्ण हल्दीघाटी: Haldighati Full Poem

हल्दीघाटी दूसरा सर्ग: Haldighati Poem Sarg 2

Haldighati Sarg 3

अखिल हिन्द का था सुल्तान,
मुगल-राज कुल का अभिमान।
बढ़ा-चढ़ा था गौरव–मान,
उसका कहीं न था उपमान॥1॥

सबसे अधिक राज विस्तार,
धन का रहा न पारावार।
राज-द्वार पर जय जयकार,
भय से डगमग था संसार॥2॥

नभ-चुम्बी विस्तृत अभिराम,
धवल मनोहर चित्रित-धाम।
भीतर नव उपवन आराम,
बजते थे बाजे अविराम॥3॥

संगर की सरिता कर पार
कहीं दमकते थे हथियार।
शोणित की प्यासी खरधार,
कहीं चमकती थी तलवार॥4॥

स्वर्णिम घर में शीत प्रकाश
जलते थे मणियों के दीप।
धोते आँसू-जल से चरण
देश-देश के सकल महीप॥5॥

तो भी कहता था सुल्तान –
पूरा कब होगा अरमान।
कब मेवाड़ मिलेगा आन,
राणा का होगा अपमान॥6॥

देख देख भीषण षड्यन्त्र,
सबने मान लिया है मन्त्र।
पर वह कैसा वीर स्वतन्त्र,
रह सकता न क्षणिक परतन्त्र॥7॥

कैसा है जलता अंगार,
कैसा उसका रण-हुंकार।
कैसी है उसकी तलवार,
अभय मचाती हाहाकार॥8॥

कितना चमक रहा है भाल,
कितनी तनु कटि, वक्ष विशाल।
उससे जननी-अंक निहाल,
धन्य धन्य माई का लाल॥9॥

कैसी है उसकी ललकार,
कैसी है उसकी किलकार।
कैसी चेतक-गति अविकार,
कैसी असि कितनी खरधार॥10॥

कितने जन कितने सरदार,
कैसा लगता है दरबार।
उस पर क्यों इतने बलिहार,
उस पर जन-रक्षा का भार॥11॥

किसका वह जलता अभिशाप,
जिसका इतना भैरव-ताप।
कितना उसमें भरा प्रताप,
अरे! अरे! साकार प्रताप॥12॥

कैसा भाला कैसी म्यान,
कितना नत कितना उत्तान!
पतन नहीं दिन-दिन उत्थान,
कितना आजादी का ध्यान॥13॥

कैसा गोरा-काला रंग,
जिससे सूरज शशि बदरंग।
जिससे वीर सिपाही तंग,
जिससे मुगल-राज है दंग॥14॥

कैसी ओज-भरी है देह,
कैसा आँगन कैसा गेह।
कितना मातृ-चरण पर नेह,
उसको छू न गया संदेह॥15॥

कैसी है मेवाड़ी-आन;
कैसी है रजपूती शान।
जिस पर इतना है कुबार्न,
जिस पर रोम-रोम बलिदान॥16॥

एक बार भी मान–समान,
मुकुट नवा करता सम्मान।
पूरा हो जाता अरमान,
मेरा रह जाता अभिमान॥17॥

यही सोचते दिन से रात,
और रात से कभी प्रभात।
होता जाता दुबर्ल गात,
यद्यपि सुख या वैभव-जात॥18॥

कुछ दिन तक कुछ सोच विचार,
करने लगा सिंह पर वार।
छिपी छुरी का अत्याचार
रूधिर चूसने का व्यापार॥19॥

करता था जन पर आघात,
उनसे मीठी मीठी बात।
बढ़ता जाता था दिन–रात,
वीर शत्रु का यह उत्पात॥20॥

इधर देखकर अत्याचार,
सुनकर जन की करूण–पुकार।
रोक शत्रु के भीषण–वार,
चेतक पर हो सिंह सवार॥21॥

कह उठता था बारंबार,
हाथों में लेकर तलवार –
वीरों, हो जाओ तैयार,
करना है माँ का उद्धार॥22॥

हल्दीघाटी चौथा सर्ग: Haldighati Poem Sarg 4

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