सम्पूर्ण रश्मिरथी Rashmirathi Full Poem Lyrics by Ramdhari Singh ‘Dinkar’

Rashmirathi Full Poem Lyrics by Ramdhari Singh ‘Dinkar’: रश्मिरथी(Rashmirathi) का अर्थ रथ पर सवार एक ऐसे व्यक्ति से है जिसका शरीर, रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों के तरह प्रकाशमान हो। यानी हम कह सकते हैं कि रश्मिरथी का अर्थ है, ‘सूर्यकिरण रुपी रथ का सवार’। दिनकर जी ने अपने इस खण्डकाव्य में कर्ण को रश्मिरथी माना है क्योंकि उनका चरित्र और शरीर सुर्य के समान दीप्तमान है।

रश्मिरथी सत्तर साल पहले लिखा गया खण्डकाव्य है। इसे क्लासिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि पिछले सत्तर सालों में इसका यश, इसकी कीर्ति, इसकी कीमत, इसकी कद्र कम नहीं हुई; बल्कि और बढ़ी है। हर दस-पन्द्रह साल में किसी न किसी बहाने से रश्मिरथी को एक नई ज़िंदगी मिल जाती है और हर नई पीढ़ी इसे उसी प्यार से अपना लेती है जैसे पिछली पीढ़ी ने अपनाया था।

चलिए सबसे पहले रश्मिरथी के बारे में संक्षेप मे कुछ समझ लेते हैं। फिर आप इसी पेज पर नीचे दिए गए लिंकों के माध्यम से Rashmirathi Full Poem या फिर कहें की Rashmirathi Lyrics को पढ़ पाएंगे।

Rashmirathi के बारे में

📌काव्यरश्मिरथी
📁कुल सर्गसात
✍️रचयितारामधारी सिंह ‘दिनकर’
🏷️प्रकारखण्डकाव्य
🗓️प्रकाशन वर्षसन् 1952

रश्मिरथी, जिसका अर्थ ‘सूर्यकिरण रुपी रथ का सवार’ है, हिन्दी के महान कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्डकाव्य है। इसका प्रकाशन सन् 1952 में हुआ था। रश्मिरथी में कुल सात सर्ग हैं, जिसमे कर्ण-चरित्र के सभी पक्षों का सजीव वर्णन किया गया है। रश्मिरथी में दिनकर जी ने कर्ण को महाभारत की कथानक से ऊपर उठाकर उन्हें नैतिकता और वफादारी की नयी भूमि पर खड़ा करके गौरव से विभूषित किया है। रश्मिरथी में दिनकर जी ने सभी पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों का परख़ नए सिरे से की है। फिर चाहे वह गुरु-शिष्य के सम्बन्ध के बहाने हो, चाहे अविवाहित मातृत्व और विवाहित मातृत्व के बहाने हो, चाहे धर्म के बहाने हो या फिर चाहे छल-प्रपंच के बहाने हो।

रश्मिरथी, युद्ध में मनुष्य के उच्च गुणों की पहचान के प्रति ललक का काव्य है। ‘रश्मिरथी’ हमें यह सन्देश देता है कि जन्म-अवैधता से कर्म की वैधता नष्ट नहीं होती। एक योग्य मनुष्य का मूल्यांकन उसके वंश या जाति से नहीं बल्कि उसके आचरण और कर्म से ही किया जाना न्यायसंगत है। क्योंकि मनुष्य अपने कर्मों से मृत्यु से पहले ही एक और जन्म ले सकता है।

कर्ण के बारे में

कर्ण, महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास द्वारा रचित महाकाव्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। कर्ण का जन्म पाण्डवों की माता कुन्ती से उसी समय हो गया था जब वह अविवाहिता थीं। दरअसल कुन्ती की सेवा-भाव से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने कुन्ती को एक वरदान दिया था जिससे वह किसी भी देवता का आवाहन करके उनसे संतान-प्राप्ति कर सकती थीं। इस वरदान का परिक्षण करने के लिए कुन्ती ने अपने महल के आँगन में सुर्य देवता का आवाह्न किया फलस्वरूप सुर्य देव ने कुंती को एक ऐसा पुत्र दिया जो कवच और कुण्डल पहने हुए जन्मा था और उसके शरीर का तेज सुर्य के समान था। इसी का नाम था, ‘कर्ण’।

चूँकि जिस समय कर्ण का जन्म हुआ उस समय कुन्ती अविवाहिता थीं इसीलिए लोकलाज से बचने के लिए उन्होंने अपने उस नवजात शिशु को एक सन्दूक में बन्द करके नदी में बहा दिया। वह सन्दूक अधिरथ नाम के एक सूत को मिला जो कभी हस्तिनापुर के सम्राट धृतराष्ट्र के सारथी हुआ करते थे। अधिरथ के धर्म-पत्नी का नाम राधा था। अधिरथ के कोई सन्तान नहीं थे। इसलिए उन्होंने इस बच्चे को अपना पुत्र मानकर उसका पालन-पोषण किया। अधिरथ ने उसका का नाम राधा के नाम पर राधेय रखा।

जब राधेय थोड़ा बड़ा हुआ तो वह धनुर्विद्या सीखने का हठ करने लगा। अधिरथ उसे लेकर आचार्य द्रोणाचार्य के पास गए किन्तु आचार्य द्रोण ने उसे शिक्षा देने से इनकार कर दिया क्योंकि उस समय वह केवल कुरु-वंशियों और राजकुमारों को शिक्षा देते थे। हालाँकि, उसी समय राधेय को देखकर आचार्य द्रोणाचार्य ने अधीरथ को उसका नाम कर्ण रखने का सुझाव दिया था। तभी से राधेय का नाम कर्ण हो गया।

आचार्य द्रोण के मना कर देने के बाद कर्ण गुरु परशुराम के पास गया जिनसे वह धनुर्विद्या सहित अन्य शिक्षाएँ भी प्राप्त किया और एक महान योद्धा बना। आचार्य द्रोणा से सीखते हुए कौरवों और पाण्डवों तथा परशुराम से सीखते हुए कर्ण ने लगभग अपनी शिक्षा को साथ ही पूरा किया।

कौरवों और पाण्डवों के शिक्षा समापन के बाद उनके कौशल-प्रदर्शन का आयोजन हस्तिनापुर में किया जाता है। सभी राजकुमार बारी-बारी से अपने विद्या का प्रदर्शन कर रहे थे। अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर घोषित हुए कौशल-प्रदर्शन करने के लिए बुलाया गया। जिस समय अर्जुन अपने धनुर्विद्या का प्रदर्शन कर रहे थे अचानक उसी समय कर्ण भी आ पहुँचते हैं तथा वह अर्जुन से प्रतिस्पर्धा की माँग करते हैं। और यहीं से कुछ शानदार काव्यगत पँक्तियों के बाद शुरू होता है रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी के द्वारा लिखित प्रसिद्ध खण्डकाव्य रश्मिरथी के प्रथम सर्ग का।

Rashmirathi all Sarg

रश्मिरथी प्रथम सर्ग: Rashmirathi Sarg 1

रश्मिरथी द्वितीय सर्ग: Rashmirathi Sarg 2

रश्मिरथी तृतीय सर्ग: Rashmirathi Sarg 3

रश्मिरथी चतुर्थ सर्ग: Rashmirathi Sarg 4

रश्मिरथी पंचम सर्ग: Rashmirathi Sarg 5

रश्मिरथी छठा सर्ग: Rashmirathi Sarg 6

रश्मिरथी सप्तम सर्ग: Rashmirathi Sarg 7

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