Rashmirathi Sarg 7 by Ramdhari Singh ‘Dinkar’: कौरव सेना के बड़े-बड़े स्तम्भ धराशायी हो गए। भीष्म पितामह शर-शैय्या पर लेट गए। द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न के द्वारा मारे गए। अब कौरवों की अन्तिम आशा कर्ण पर टिकी थी। वही कर्ण जिसे विधि ने बार छला था। अपनी अटूट साधन और निष्ठा से उसने परशुराम से ब्रम्हास्त्र प्राप्त किया। लेकिन साथ ही उसे श्राप भी मिल गया की जब उसे ब्रम्हास्त्र की सबसे अधिक आवश्यकता होगी तब वह उसे चलाने की विद्या भूल जाएगा।
सुर्य देव ने उसे कवच-कुण्डल दिया था जिसे इंद्र ने उसकी दानवीरता का लाभ उठाकर माँग लिया। बदले में उसे एकाघ्नि अस्त्र दिया जिसका वार अचूक तो था लेकिन वह सिर्फ एक बार प्रहार कर सकता था। कर्ण ने उसे अर्जुन के लिए संभाल रखा था पर दुर्योधन की विनती मानकर घटोत्कच पर खर्च कर दिया।
रश्मिरथी सप्तम सर्ग
अब कर्ण को वह महायुद्ध लड़ना था जिसके लिए उसके प्राणों ने एक-एक छड़ गिनकर प्रतीक्षा की थी। लेकिन उस समय न तो उसके पास कवच-कुंडल था, न ब्रम्हास्त्र, न एकाघ्नि; अगर कुछ था तो वह था नसों में खौलता हुआ क्षत्रिय रक्त और वीरता से शोभित ललाट और भुजाओं में कड़कता हुआ अदम्य साहस।
कर्ण ने कुंती को वचन दिया था की अर्जुन के सिवाय किसी पांडव का वध नहीं करेगा। कुंती पाँच पुत्रों की माता थी और हमेशा रहेगी; उसके पुत्रों की गिनती नहीं बिगड़ेगी। कर्ण ने यह भी कहा था की यदि उसने अर्जुन को मार दिया तो वह स्वयं पुत्र की तरह कुंती की गोद में वापस लौट आएगा।
लेकिन अर्जुन से आज वह अन्तिम बार टकराते हुए वह जान चुका था की जीवन के इस अन्तिम युद्ध में भी नियति उसे वैसे ही छलेगी जैसे जीवन भर छला। उसे अपने मृत्यु का पूर्वाभास हो चुका था लेकिन वह वीर लड़ते हुए दहाड़ते हुए हजारों शत्रुओं को मारकर मरना चाहता था। इसीलिए तो वह अपने सारथी शल्य को आदेश देता है-
“संहार देह धर खड़ा जहाँ अपनी पैंजनी बजाता हो,
भीषण गर्जन में जहाँ रोर ताण्डव का डूबा जाता हो,
ले चलो, जहाँ फट रहा व्योम, मच रहा जहाँ पर घमासान,
साकार ध्वंस के बीच पैठ छोड़ना मुझे है आज प्राण।”
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में वह सारे अधर्म हुए जो नहीं होने थे। जहाँ सत्य का व्रत लेने वाले धर्मराज को भी असत्य की ओर झुकना पड़ा वहीं सिर्फ सुर्य पुत्र कर्ण ही एक योद्धा ऐसा था जिसने क्षण भर के लिए भी धर्म का सूर्यास्त नहीं होने दिया।
हालांकि, उसे आभास हो गया था की कल कुरुक्षेत्र में उसका मस्तक कटकर धरती पर लोट रहा होगा। मृत्यु निश्चित थी। पर उससे भी बढ़कर कहीं ये निश्चित था की कर्ण पीछे नहीं हटेगा; आगे बढ़कर मृत्यु को गले लगाएगा। इतनी जोर से उसे अपने आलिंगन में भरेगा की मृत्यु की भी हड्डियाँ चटक जाएँ।
📌काव्य | रश्मिरथी |
📁सर्ग | सप्तम |
✍️रचयिता | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ |
🏷️प्रकार | खण्डकाव्य |
🗓️प्रकाशन वर्ष | सन् 1952 |
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रश्मिरथी छठा सर्ग Rashmirathi Sarg 6
Rashmirathi Sarg 7
निशा बीती, गगन का रूप दमका,
किनारे पर किसी का चीर चमका।
क्षितिज के पास लाली छा रही है,
अतल से कौन ऊपर आ रही है?
संभाले शीश पर आलोक-मंडल,
दिशाओं में उड़ाती ज्योतिरंचल,
किरण में स्निग्ध आतप फेंकती-सी,
शिशिर कम्पित द्रुमों को सेंकती-सी,
खगों का स्पर्श से कर पंख-मोचन,
कुसुम के पोंछती हिम-सिक्त लोचन,
दिवस की स्वामिनी आई गगन में,
उडा कुंकुम, जगा जीवन भुवन में ।
मगर, नर बुद्धि-मद से चूर होकर,
अलग बैठा हुआ है दूर होकर,
उषा पोंछे भला फिर आँख कैसे?
करे उन्मुक्त मन की पाँख कैसे?
मनुज विभ्राट् ज्ञानी हो चुका है,
कुतुक का उत्स पानी हो चुका है,
प्रकृति में कौन वह उत्साह खोजे?
सितारों के हृदय में राह खोजे?
विभा नर को नहीं भरमायगी यह है?
मनस्वी को कहाँ ले जायगी यह?
कभी मिलता नहीं आराम इसको,
न छेड़ो, हैं अनेकों काम इसको।
महाभारत मही पर चल रहा है,
भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।
मनुज ललकारता फिरता मनुज को,
मनुज ही मारता फिरता मनुज को।
पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,
सहेली सर्पिणी की हो चुकी है,
न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,
निगल ही जायगी सद्धर्म को वह।
मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें,
पिता के प्राण सुत के साथ छूटें,
मचे घनघोर हाहाकार जग में,
भरे वैधव्य की चीत्कार जग में,
मगर, पत्थर हुआ मानव- हृदय है,
फकत, वह खोजता अपनी विजय है,
नहीं ऊपर उसे यदि पायगा वह,
पतन के गर्त में भी जायगा वह।
पड़े सबको लिये पाण्डव पतन में,
गिरे जिस रोज द्रोणाचार्य रण में,
बड़े धर्मिंष्ठ, भावुक और भोले,
युधिष्ठिर जीत के हित झूठ बोले।
नहीं थोड़े बहुत का भेद मानो,
बुरे साधन हुए तो सत्य जानो,
गलेंगे बर्फ में मन भी, नयन भी,
अँगूठा ही नहीं, संपूर्ण तन भी ।
नमन उनको, गये जो स्वर्ग मर कर,
कलंकित शत्रु को, निज को अमर कर,
नहीं अवसर अधिक दुख-दैन्य का है,
हुआ राधेय नायक सैन्य का है।
जगा लो वह निराशा छोड़ करके,
द्विधा का जाल झीना तोड़ करके,
गरजता ज्योति-के आधार! जय हो,
चरम आलोक मेरा भी उदय हो ।
बहुत धुधुआ चुकी, अब आग फूटे,
किरण सारी सिमट कर आज छुटे।
छिपे हों देवता! अंगार जो भी,
दबे हों प्राण में हुंकार जो भी,
उन्हें पुंजित करो, आकार दो हे!
मुझे मेरा ज्वलित श्रृंगार दो हे!
पवन का वेग दो, दुर्जय अनल दो,
विकर्तन! आज अपना तेज-बल हूँ दो!
मही का सूर्य होना चाहता हूँ,
विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।
समय को चाहता हूँ दास करना,
अभय हो मृत्यु का उपहास करना।
भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,
हिमालय को उठाना चाहता हूँ,
समर के सिन्धु को मथ कर शरों से,
धरा हूँ चाहता श्री को करों से।
ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ,
हथेली पर नचाना चाहता हूँ।
मचलना चाहता हूँ धार पर मैं,
हँसा हूँ चाहता अंगार पर मैं।
समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,
धधक कर आज जीना चाहता हूँ,
समय को बन्द करके एक क्षण में,
चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं।
असंभव कल्पना साकार होगी,
पुरुष की आज जयजयकार होगी।
समर वह आज ही होगा मही पर,
न जैसा था हुआ पहले कहीं पर।
चरण का भार लो, सिर पर सँभालो;
नियति की दूतियो! मस्तक झुका लो।
चलो, जिस भाँति चलने को कहूँ मैं,
ढलो, जिस माँति ढलने को कहूँ मैं।
न कर छल-छद्म से आघात फूलो,
पुरुष हूँ मैं, नहीं यह बात भूलो।
कुचल दूँगा, निशानी मेट दूँगा,
चढ़ा दुर्जय भुजा की भेंट दूँगा।
अरी, यों भागती कबतक चलोगी?
मुझे ओ वंचिके! कबतक छलोगी?
चुराओगी कहाँ तक दाँव मेरा?
रखोगी रोक कबतक पाँव मेरा?
अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे,
हृदय की भावना निष्काम तुमसे,
चले संघर्ष आठों याम तुमसे,
करूँगा अन्त तक संग्राम तुमसे।
कहाँ तक शक्ति से वंचित करोगी?
कहाँ तक सिद्धियाँ मेरी हरोगी?
तुम्हारा छद्म सारा शेष होगा,
न संचय कर्ण का नि:शेष होगा।
कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं,
भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं,
गई एकाघ्नि तो सब कुछ गया क्या ?
बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या?
समर की सूरता साकार हूँ मैं,
महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।
विभूषण वेद-भूषित कर्म मेरा,
कवच है आज तक का धर्म मेरा।
तपस्याओं! उठो, रण में गलो तुम,
नई एकघ्नियाँ वन कर ढलो तुम,
अरी ओ सिद्धियों की आग, आओ;
प्रलय का तेज बन मुझमें समाओ।
कहाँ हो पुण्य? बाँहों में भरो तुम,
अरी व्रत-साधने! आकार लो तुम।
हमारे योग की पावन शिखाओ,
समर में आज मेरे साथ आओ।
उगी हों ज्योतियां यदि दान से भी,
मनुज-निष्ठा, दलित-कल्याण से भी,
चलें वे भी हमारे साथ होकर,
पराक्रम-शौर्य की ज्वाला संजो कर।
हृदय से पूजनीया मान करके,
बड़ी ही भक्ति से सम्मान करके,
सुवामा-जाति को सुख दे सका हूँ,
अगर आशीष उनसे ले सका हूँ,
समर में तो हमारा वर्म हो वह,
सहायक आज ही सत्कर्म हो वह।
सहारा, माँगता हूँ पुण्य-बल का,
उजागर धर्म का, निष्ठा अचल का।
प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ,
विधाता से किये विद्रोह जीवन में खड़ा हूँ।
स्वयं भगवान मेरे शत्रु को ले चल रहे हैं,
अनेकों भाँति से गोविन्द मुझको छल रहे हैं।
मगर, राधेय का स्यन्दन नहीं तब भी रुकेगा,
नहीं गोविन्द को भी युध्द में मस्तक झुकेगा,
बताऊँगा उन्हें मैं आज, नर का धर्म क्या है,
समर कहते किसे हैं और जय का मर्म क्या है।
बचा कर पाँव धरना, थाहते चलना समर को,
बनाना ग्रास अपनी मृत्यु का योद्धा अपर को,
पुकारे शत्रु तो छिप व्यूह में प्रच्छन्न रहना,
सभी के सामने ललकार को मन मार सहना।
प्रकट होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब,
धनुष ढीला, शिथिल उसका जरा कुछ तीर हो जब।
कहाँ का धर्म? कैसी भर्त्सना की बात है यह?
नहीं यह वीरता, कौटिल्य का अपघात है यह।
समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिखला रहे हैं,
जगत को कौन नूतन पुण्य-पथ दिखला रहे हैं।
हुआ वध द्रोण का कल जिस तरह वह धर्म था क्या?
समर्थन-योग्य केशव के लिए वह कर्म था क्या?
यही धर्मिष्ठता? नय-नीति का पालन यही है?
मनुज मलपुंज के मालिन्य का क्षालन यही है?
यही कुछ देखकर संसार क्या आगे बढ़ेगा?
जहाँ गोविन्द हैं, उस श्रृंग के ऊपर चढ़ेगा?
करें भगवान जो चाहें, उन्हें सब कुछ क्षमा है,
मगर क्या वज्र का विस्फोट छींटों से थमा है?
चलें वे बुद्धि की ही चाल, मैं बल से चलूंगा?
न तो उनको, न होकर जिह्न अपने को छलूंगा।
डिगाना घर्म क्या इस चार बित्त्रों की मही को?
भुलाना क्या मरण के बादवाली जिन्दगी को?
बसाना एक पुर क्या लाख जन्मों को जला कर!
मुकुट गढ़ना भला क्या पुण्य को रण में गला कर?
नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-ओक लेगा,
विजय पाये न पाये, रश्मियों का लोक लेगा!
विजय-गुरु कृष्ण हों, गुरु किन्तु, मैं बलिदान का हूँ;
असीसें देह को वे, मैं निरन्तर प्राण का हूँ।
जागो, वलिदान की पावन शिखाओ,
समर में आज कुछ करतब दिखाओ।
नहीं शर ही, सखा सत्कर्म भी हो,
धनुष पर आज मेरा धर्म भी हो।
मचे भूडोल प्राणों के महल में,
समर डूबे हमारे बाहु-बल में।
गगन से वज्र की बौछार छूटे,
किरण के तार से झंकार फूटे।
चलें अचलेश, पारावार डोले;
मरण अपनी पुरी का द्वार खोले।
समर में ध्वंस फटने जा रहा है,
महीमंडल उलटने जा रहा है।
अनूठा कर्ण का रण आज होगा,
जगत को काल-दर्शन आज होगा।
प्रलय का भीम नर्तन आज होगा,
वियद्व्यापी विवर्तन आज होगा।
विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा,
नहीं गोविन्द का भी बस चलेगा।
गिरेगा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,
जयी कुरुराज लौटेगा समर से।
बना आनन्द उर में छा रहा है,
लहू में ज्वार उठता जा रहा है।
हुआ रोमांच यह सारे बदन में,
उगे हैं या कटीले वृक्ष तन में।
अहा! भावस्थ होता जा रहा हूँ,
जगा हूँ या कि सोता जा रहा हूँ?
बजाओ, युद्ध के बाजे बजाओ,
सजाओ, शल्य! मेरा रथ सजाओ।
रथ सजा, भेरियाँ घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल।
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक-समूह।
हेषा रथाश्व की, चक्र-रोर, दन्तावल का वृहित अपार,
टंकार धुनुर्गुण की भीम, दुर्मद रणशूरों की पुकार।
खलमला उठा ऊपर खगोल, कलमला उठा पृथ्वी का तन,
सन-सन कर उड़ने लगे विशिख, झनझना उठी असियाँ झनझन।
तालोच्च-तरंगावृत बुभुक्षु-सा लहर उठा संगर-समुद्र,
या पहन ध्वंस की लपट लगा नाचने समर में स्वयं रुद्र।
हैं कहाँ इन्द्र ? देखें, कितना प्रज्वलित मर्त्य जन होता है?
सुरपति से छले हुए नर का कैसा प्रचण्ड रण होता है?
अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण,
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण।
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश,
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश।
भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण,
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण!
‘रण में क्यों आये आज ?’ लोग मन-ही-मन में पछताते थे,
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे।
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण।
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण।
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह;
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा भुज का सागर अथाह।
गरजा अशङक हो कर्ण, ‘शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूँ,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूँ।
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके,
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके।
इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज।
लेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-कल्प, मृदुल काया।
भागे वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव,
कौतुक से बोला, ‘महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव।
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूँ।
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूँ।
‘हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में,
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में?
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी झपटों से खेला करिये।’
भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज,
सोचते, “कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज?
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया?
आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया।”
समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण,
गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण?
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया।
कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में,
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में।
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर।
देखता रहा सब श्लय, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन,
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन,
‘रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है?
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है?’
‘संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या?
मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या?
रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है।’
हंसकर बोला राधेय, ‘शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी,
क्षयमान्, क्षनिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी।
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूँ,
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूँ।
‘पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से,
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से;
यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है,
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है।
‘सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को,
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म निभाने को,
सबके समेत पङिकल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या?
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या?
यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण?
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान।
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को,
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को।
ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के,
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के।
ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी।’
‘समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं,
ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं।
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं।’
समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला ‘प्रलाप यह बन्द करो,
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो।
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है,
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है।’
‘क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है,
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है।
राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो,
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो।’
पार्थ को देख उच्छल-उमंग-पूरित उर-पारावार हुआ,
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ।
वोला ‘विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया,
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया।
‘जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन,
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण।
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें,
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें।’
‘पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा,
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा।
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है,
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है।’
कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय,
बोला, ‘रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय।
पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं,
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं ।’
यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया,
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया।
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास,
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश।
बोला, ‘शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा;
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा।
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो,
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो।’
‘अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा।’
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके,
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके।’
संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन।
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ,
सब लगे पूछने, ‘अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ?’
पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द;
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द।
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार।
इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान।
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध,
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द।
है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण,
भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन।
थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर,
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर।
अहा ! यह युग्म दो अद्भुत नरों का,
महा मदमत्त मानव- कुंजरों का;
नृगुण के मूर्तिमय अवतार ये दो,
मनुज-कुल के सुभग श्रृंगार ये दो।
परस्पर हो कहीं यदि एक पाते,
ग्रहण कर शील की यदि टेक पाते,
मनुजता को न क्या उत्थान मिलता?
अनूठा क्या नहीं वरदान मिलता?
मनुज की जाति का पर शाप है यह,
अभी बाकी हमारा पाप है यह,
बड़े जो भी कुसुम कुछ फूलते हैं,
अहँकृति में भ्रमित हो भूलते हैं।
नहीं हिलमिल विपिन को प्यार करते,
झगड़ कर विश्व का संहार करते।
जगत को डाल कर नि:शेष दुख में,
शरण पाते स्वयं भी काल-मुख में।
चलेगी यह जहर की क्रान्ति कबतक?
रहेगी शक्ति-वंचित शांति कबतक?
मनुज मनुजत्व से कबतक लड़ेगा?
अनल वीरत्व से कबतक झड़ेगा?
विकृति जो प्राण में अंगार भरती,
हमें रण के लिए लाचार करती,
घटेगी तीव्र उसका दाह कब तक?
मिलेगी अन्य उसको राह कब तक?
हलाहल का शमन हम खोजते हैं,
मगर, शायद, विमन हम खोजते हैं,
बुझाते है दिवस में जो जहर हम,
जगाते फूंक उसको रात भर हम।
किया कुंचित, विवेचन व्यस्त नर का,
हृदय शत भीति से संत्रस्त नर का।
महाभारत मही पर चल रहा है,
भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।
चल रहा महाभारत का रण,
जल रहा धरित्री का सुहाग,
फट कुरुक्षेत्र में खेल रही,
नर के भीतर की कुटिल आग।
बाजियों-गजों की लोथों में,
गिर रहे मनुज के छिन्न अंग,
बह रहा चतुष्पद और द्विपद
का रुधिर मिश्र हो एक संग ।
गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर-से,
लिये रक्त-रंजित शरीर,
थे जूझ रहे कौन्तेय-कर्ण,
क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर।
दोनों रणकृशल धनुर्धर नर,
दोनों समबल, दोनों समर्थ,
दोनों पर दोनों की अमोघ,
थी विशिख-वृष्टि हो रही व्यर्थ ।
इतने में शर के कर्ण ने देखा जो अपना निषङग,
तरकस में से फुङकार उठा, कोई प्रचण्ड विषधर भूजङग,
कहता कि ‘कर्ण! मैं अश्वसेन विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूँ,
जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूँ।
‘बस, एक बार कर कृपा धनुष पर चढ शरव्य तक जाने दे,
इस महाशत्रु को अभी तुरत स्यन्दन में मुझे सुलाने दे।
कर वमन गरल जीवन भर का सञ्चित प्रतिशोध उतारूँगा,
तू मुझे सहारा दे, बढक़र मैं अभी पार्थ को मारूँगा।’
राधेय जरा हंसकर बोला, ‘रे कुटिल! बात क्या कहता है?
जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है।
उस पर भी सांपों से मिल कर मैं मनुज, मनुज से युध्द करूँ?
जीवन भर जो निष्ठा पाली, उससे आचरण विरुध्द करूँ?’
‘तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊँगा,
आनेवाली मानवता को, लेकिन, क्या मुख दिखलाऊँगा?
संसार कहेगा, जीवन का सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया;
प्रतिभट के वध के लिए सर्प का पापी ने साहाय्य लिया।’
‘रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी।
ये नर-भुजङग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के वध के लिए नीच साहाय्य सर्प का लेते हैं।’
‘ऐसा न हो कि इन सांपो में मेरा भी उज्ज्वल नाम चढ़े।
पाकर मेरा आदर्श और कुछ नरता का यह पाप बढ़े।
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु वह सर्प नहीं, नर ही तो है,
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता इस जीवन भर ही तो है।’
‘अगला जीवन किसलिए भला, तब हो द्वेषान्ध बिगाड़ूँ मैं?
सांपो की जाकर शरण, सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूँ मैं?
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह कलङक अपने पर नहीं लगा सकता।’
काकोदर को कर विदा कर्ण, फिर बढ़ा समर में गर्जमान,
अम्बर अनन्त झङकार उठा, हिल उठे निर्जरों के विमान।
तूफ़ान उठाये चला कर्ण बल से धकेल अरि के दल को,
जैसे प्लावन की धार बहाये चले सामने के जल को।
पाण्डव-सेना भयभीत भागती हुई जिधर भी जाती थी;
अपने पीछे दौडते हुए वह आज कर्ण को पाती थी।
रह गयी किसी के भी मन में जय की किञ्चित भी नहीं आस,
आखिर, बोले भगवान् सभी को देख व्याकुल हताश।
‘अर्जुन! देखो, किस तरह कर्ण सारी सेना पर टूट रहा,
किस तरह पाण्डवों का पौरुष होकर अशङक वह लूट रहा।
देखो जिस तरफ़, उधर उसके ही बाण दिखायी पडते हैं,
बस, जिधर सुनो, केवल उसके हुङकार सुनायी पडते हैं।’
‘कैसी करालता! क्या लाघव! कितना पौरुष! कैसा प्रहार!
किस गौरव से यह वीर द्विरद कर रहा समर-वन में विहार!
व्यूहों पर व्यूह फटे जाते, संग्राम उजडता जाता है,
ऐसी तो नहीं कमल वन में भी कुञ्जर धूम मचाता है।’
‘इस पुरुष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन,
कुछ बुरा न मानो, कहता हूं, मैं आज एक चिर-गूढ वचन।
कर्ण के साथ तेरा बल भी मैं खूब जानता आया हूँ,
मन-ही-मन तुझसे बड़ा वीर, पर इसे मानता आया हूँ।’
औ’ देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूं मन में,
है भी कोई, जो जीत सके, इस अतुल धनुर्धर को रण में?
मैं चक्र सुदर्शन धरूं और गाण्डीव अगर तू तानेगा,
तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङक हमारा मानेगा।’
‘यह नहीं देह का बल केवल, अन्तर्नभ के भी विवस्वान्,
हैं किये हुए मिलकर इसको इतना प्रचण्ड जाज्वल्यमान।
सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है;
मृत्तिका-पुञ्ज यह मनुज ज्योतियों के जग का अधिकारी है।’
‘कर रहा काल-सा घोर समर, जय का अनन्त विश्वास लिये,
है घूम रहा निर्भय, जानें, भीतर क्या दिव्य प्रकाश लिये!
जब भी देखो, तब आंख गडी सामने किसी अरिजन पर है,
भूल ही गया है, एक शीश इसके अपने भी तन पर है।’
‘अर्जुन! तुम भी अपने समस्त विक्रम-बल का आह्वान करो,
अर्जित असंख्य विद्याओं का हो सजग हृदय में ध्यान करो।
जो भी हो तुममें तेज, चरम पर उसे खींच लाना होगा,
तैयार रहो, कुछ चमत्कार तुमको भी दिखलाना होगा।’
दिनमणि पश्चिम की ओर ढले देखते हुए संग्राम घोर,
गरजा सहसा राधेय, न जाने, किस प्रचण्ड सुख में विभोर।
‘सामने प्रकट हो प्रलय! फाड़ तुझको मैं राह बनाऊँगा,
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊँगा।’
‘क्या धमकाता है काल ? अरे, आ जा, मुट्ठी में बन्द करूँ।
छुट्टी पाऊँ, तुझको समाप्त कर दूँ, निज को स्वच्छन्द करूँ।
ओ शल्य! हयों को तेज करो, ले चलो उड़ाकर शीघ्र वहाँ,
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहाँ।’
‘हो शास्त्रों का झन-झन-निनाद, दन्तावल हों चिंग्घार रहे,
रण को कराल घोषित करके हों समरशूर हुङकार रहे,
कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड, उठता होर आर्त्तनाद क्षण-क्षण,
झनझना रही हों तलवारें; उडते हों तिग्म विशिख सन-सन।’
‘संहार देह धर खड़ा जहाँ अपनी पैंजनी बजाता हो,
भीषण गर्जन में जहाँ रोर ताण्डव का डूबा जाता हो।
ले चलो, जहाँ फट रहा व्योम, मच रहा जहाँ पर घमासान,
साकार ध्वंस के बीच पैठ छोड़ना मुझे है आज प्राण।’
समझ में शल्य की कुछ भी न आया,
हयों को जोर से उसने भगाया।
निकट भगवान् के रथ आन पहुँचा,
अगम, अज्ञात का पथ आन पहुँचा?
अगम की राह, पर, सचमुच, अगम है,
अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है।
न जानें न्याय भी पहचानती है,
कुटिलता ही कि केवल जानती है?
रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका,
चमकता सूर्य-सा था कर्म जिसका,
अबाधित दान का आधार था जो,
धरित्री का अतुल श्रृङगार था जो,
क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को,
कहें क्या मेदिनी मानव-प्रसू को?
रुधिर के पङक में रथ को जकड़ क़र,
गयी वह बैठ चक्के को पकड़ क़र।
लगाया जोर अश्वों ने न थोड़ा,
नहीं लेकिन, मही ने चक्र छोड़ा।
वृथा साधन हुए जब सारथी के,
कहा लाचार हो उसने रथी से।
‘बडी राधेय! अद्भुत बात है यह।
किसी दु:शक्ति का ही घात है यह।
जरा-सी कीच में स्यन्दन फँसा है,
मगर, रथ-चक्र कुछ ऐसा धँसा है;’
‘निकाले से निकलता ही नहीं है,
हमारा जोर चलता ही नहीं है,
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो,
लगा अपनी भुजा का जोर देखो ‘
हँसा राधेय कर कुछ याद मन में,
कहा, ‘हाँ सत्य ही, सारे भुवन में,
विलक्षण बात मेरे ही लिए है,
नियति का घात मेरे ही लिए है।
‘मगर, है ठीक, किस्मत ही फँसे जब,
धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब,
सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से,
निकाले कौन उसको बाहुबल से?’
उछलकर कर्ण स्यन्दन से उतर कर,
फँसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर,
लगा ऊपर उठाने जोर करके,
कभी सीधा, कभी झकझोर करके।
मही डोली, सलिल-आगार डोला,
भुजा के जोर से संसार डोला
न डोला, किन्तु, जो चक्का फँसा था,
चला वह जा रहा नीचे धँसा था ।
विपद में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर,
शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर,
जगा कर पार्थ को भगवान् बोले-
‘खड़ा है देखता क्या मौन, भोले?’
‘शरासन तान, बस अवसर यही है,
घड़ी फ़िर और मिलने की नहीं है।
विशिख कोई गले के पार कर दे,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे।’
श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह,
विजय के हेतु आतुर एषणा यह,
सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन,
विनय में ही, मगर, बोला अकिञ्चन।
‘नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा?
मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा?’
हँसे केशव, ‘वृथा हठ ठानता है।
अभी तू धर्म को क्या जानता है?’
‘कहूँ जो, पाल उसको, धर्म है यह।
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह।
क्रिया को छोड़ चिन्तन में फँसेगा,
उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा।’
भला क्यों पार्थ कालाहार होता?
वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता?
सभी दायित्व हरि पर डाल करके,
मिली जो शिष्टि उसको पाल करके,
लगा राधेय को शर मारने वह,
विपद् में शत्रु को संहारने वह,
शरों से बेधने तन को, बदन को,
दिखाने वीरता नि:शस्त्र जन को।
विशिख सन्धान में अर्जुन निरत था,
खड़ा राधेय नि:सम्बल, विरथ था,
खड़े निर्वाक सब जन देखते थे,
अनोखे धर्म का रण देखते थे।
नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते,
हृदय में धर्म का टुक ध्यान धरते।
समय के योग्य धीरज को संजोकर,
कहा राधेय ने गम्भीर होकर।
‘नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो!
बहुत खेले, जरा विश्राम तो लो।
फँसे रथचक्र को जब तक निकालूँ,
धनुष धारण करूँ, प्रहरण संभालूँ,’
‘रुको तब तक, चलाना बाण फिर तुम;
हरण करना, सको तो, प्राण फिर तुम।
नहीं अर्जुन! शरण मैं माँगता हूँ,
समर्थित धर्म से रण माँगता हूँ।’
‘कलकिंत नाम मत अपना करो तुम,
हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम।
विजय तन की घड़ी भर की दमक है,
इसी संसार तक उसकी चमक है।’
‘भुवन की जीत मिटती है भुवन में,
उसे क्या खोजना गिर कर पतन में?
शरण केवल उजागर धर्म होगा,
सहारा अन्त में सत्कर्म होगा।’
उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को,
निहारा पार्थ ने हो खिन्न हरि को।
मगर, भगवान् किञ्चित भी न डोले,
कुपित हो वज्र-सी यह बात बोले-
‘प्रलापी! ओ उजागर धर्म वाले!
बड़ी निष्ठा, बड़े सत्कर्म वाले!
मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन,
कहाँ पर सो रहा था धर्म उस दिन?’
‘हलाहल भीम को जिस दिन पड़ा था,
कहाँ पर धर्म यह उस दिन धरा था?
लगी थी आग जब लाक्षा-भवन में,
हँसा था धर्म ही तब क्या भुवन में?’
‘सभा में द्रौपदी की खींच लाके,
सुयोधन की उसे दासी बता के,
सुवामा-जाति को आदर दिया जो,
बहुत सत्कार तुम सबने किया जो,’
‘नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था,
उजागर, शीलभूषित धर्म ही था।
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन,
हुए पाण्डव यती निष्काम जिस दिन,’
‘चले वनवास को तब धर्म था वह,
शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह।
अवधि कर पूर्ण जब, लेकिन, फिरे वे,
असल में, धर्म से ही थे गिरे वे।’
‘बडे पापी हुए जो ताज माँगा,
किया अन्याय; अपना राज माँगा।
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं,
अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं?’
‘हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे?
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे?
कि दगे धर्म को बल अन्य जन भी?
तजेंगे क्रूरता-छल अन्य जन भी?’
‘न दी क्या यातना इन कौरवों ने?
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने?
मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था,
दुहित निज मित्र का, सत्कर्म ही था।’
‘किये का जब उपस्थित फल हुआ है,
ग्रसित अभिशाप से सम्बल हुआ है,
चला है खोजने तू धर्म रण में,
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में।’
‘शिथिल कर पार्थ! किंचित् भी न मन तू।
न धर्माधर्म में पड़ भीरु बन तू।
कड़ा कर वक्ष को, शर मार इसको,
चढ़ा शायक तुरत संहार इसको।’
हँसा राधेय, ‘हां अब देर भी क्या?
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या?
कृपा कुछ और दिखलाते नहीं क्यों?
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों?’
थके बहुविध स्वयं ललकार करके,
गया थक पार्थ भी शर मार करके,
मगर, यह वक्ष फटता ही नहीं है,
प्रकाशित शीश कटता ही नहीं है।
शरों से मृत्यु झड़ कर छा रही है,
चतुर्दिक घेर कर मँडरा रही है,
नहीं, पर लीलती वह पास आकर,
रुकी है भीति से अथवा लजाकर।
जरा तो पूछिए, वह क्यों डरी है?
शिखा दुर्द्धर्ष क्या मुझमें भरी है?
मलिन वह हो रहीं किसकी दमक से?
लजाती किस तपस्या की चमक से?
जरा बढ़ पीठ पर निज पाणि धरिए,
सहमती मृत्यु को निर्भीक करिए,
न अपने-आप मुझको खायगी वह,
सिकुड़ कर भीति से मर जायगी वह।
‘कहा जो आपने, सब कुछ सही है,
मगर, अपनी मुझे चिन्ता नहीं है?
सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूँ,
बिना विजयी बनाये जा रहा हूँ।’
‘वृथा है पूछना किसने किया क्या,
जगत् के धर्म को सम्बल दिया क्या!
सुयोधन था खड़ा कल तक जहाँ पर,
न हैं क्या आज पाण्डव भी वहाँ पर?’
‘उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोड़ा?
किये से कौन कुत्सित कर्म छोड़ा?
गिनाऊँ क्या? स्वयं सब जानते हैं,
जगद्गुरु आपको हम मानते है।’
‘शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन,
हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन,
नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था।
हरे! कह दीजिये, वह धर्म ही था।’
‘हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे,
गये भूरिश्रवा के प्राण जैसे,
नहीं वह कृत्य नरता से रहित था,
पतन वह पाण्डवों का धर्म-हित था।’
‘कथा अभिमन्यु की तो बोलते हैं,
नहीं पर, भेद यह क्यों खोलते हैं?
कुटिल षडयन्त्र से रण से विरत कर,
महाभट द्रोण को छल से निहत कर,’
‘पतन पर दूर पाण्डव जा चुके हैं,
चतुर्गुण मोल बलि का पा चुके हैं।
रहा क्या पुण्य अब भी तोलने को?
उठा मस्तक, गरज कर बोलने को?’
‘वृथा है पूछना, था दोष किसका?
खुला पहले गरल का कोष किसका?
जहर अब तो सभी का खुल रहा है,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है।’
जहर की कीच में ही आ गये जब,
कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब,
दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में,
अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में?’
‘सुयोधन को मिले जो फल किये का,
कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का,
मगर, पाण्डव जहां अब चल रहे हैं,
विकट जिस वासना में जल रहे हैं,’
‘अभी पातक बहुत करवायेगी वह,
उन्हें जानें कहां ले जायेगी वह।
न जानें, वे इसी विष से जलेंगे,
कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे।’
‘सुयोधन पूत या अपवित्र ही था,
प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था।
किया मैंने वही, सत्कर्म था जो,
निभाया मित्रता का धर्म था जो।’
‘नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है,
कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है;
अभी भी शुभ्र उर की चेतना है,
अगर है, तो यही बस, वेदना है।’
‘वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों?
समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों?
न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूँ,
लिये यह दाह मन में जा रहा हूँ।’
‘विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को,
शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को।
अभय हो बेधता जा अंग अरि का,
द्विधा क्या, प्राप्त है जब संग हरि का!’
‘मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं,
गगन में खोजता हूं अन्य पथ मैं।
भले ही लील ले इस काठ को तू,
न पा सकती पुरुष विभ्राट को तू।’
‘महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है;
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके;
जुते हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें;
हमारा पुण्य जिसमें झूलता है, विभा के पद्म-सा जो फूलता है ।’
‘रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से;
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सद्धर्म से उद्भूत है जो;
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको;
गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है।’
‘अहा! आलोक-स्यन्दन आन पहुँचा,
हमारे पुण्य का क्षण आन पहुँचा।
विभाओ सूर्य की! जय-गान गाओ,
मिलाओ, तार किरणों के मिलाओ।’
‘प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो!
जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो!
तपस्या रोचिभूषित ला रहा हूँ,
चढ़ा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हूँ।’
गगन में बध्द कर दीपित नयन को,
किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को,
लगा शर एक ग्रीवा में संभल के,
उड़ी ऊपर प्रभा तन से निकल के!
गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर!
तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर।
छिटक कर जो उड़ा आलोक तन से,
हुआ एकात्म वह मिलकर तपन से!
उठी कौन्तेय की जयकार रण में,
मचा घनघोर हाहाकार रण में।
सुयोधन बालकों-सा रो रहा था!
खुशी से भीम पागल हो रहा था !
फिरे आकाश से सुरयान सारे,
नतानन देवता नभ से सिधारे।
छिपे आदित्य होकर आर्त्त घन में,
उदासी छा गयी सारे भुवन में।
अनिल मंथर व्यथित-सा डोलता था,
न पक्षी भी पवन में बोलता था।
प्रकृति निस्तब्ध थी, यह हो गया क्या?
हमारी गाँठ से कुछ खो गया क्या?
मगर, कर भंग इस निस्तब्ध लय को,
गहन करते हुए कुछ और भय को,
जयी उन्मत्त हो हुंकारता था,
उदासी के हृदय को फाड़ता था।
युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से,
प्रफुल्लित हो, बहुत दुर्लभ विजय से,
दृगों में मोद के मोती सजाये,
बड़े ही व्यग्र हरि के पास आये।
कहा, ‘केशव! बड़ा था त्रास मुझको,
नहीं था यह कभी विश्वास मुझको,
कि अर्जुन यह विपद भी हर सकेगा,
किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा।’
‘इसी के त्रास में अन्तर पगा था,
हमें वनवास में भी भय लगा था।
कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था?
न तेरह वर्ष सुख से सो सका था।’
‘बली योध्दा बड़ा विकराल था वह!
हरे! कैसा भयानक काल था वह?
मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे!
शिला निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे!’
‘मिला कैसे समय निर्भीत है यह?
हुई सौभाग्य से ही जीत है यह?
नहीं यदि आज ही वह काल सोता,
न जानें, क्या समर का हाल होता?’
उदासी में भरे भगवान् बोले,
‘न भूलें आप केवल जीत को ले।
नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है।
विभा का सार शील पुनीत में है।’
‘विजय, क्या जानिये, बसती कहाँ है?
विभा उसकी अजय हँसती कहाँ है ?
भरी वह जीत के हुङकार में है,
छिपी अथवा लहू की धार में है?’
‘हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में?
मिला किसको विजय का ताज रण में?
किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या?
चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या?’
‘समस्या शील की, सचमुच गहन है।
समझ पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है।
न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है।
जिसे तजता, उसी को मानता है।’
‘मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह।
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह।
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,
बड़ा ब्रह्मण्य था, मन से यती था।’
‘हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का,
दलित-तारक, समुध्दारक त्रिया का।
बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था,
युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था।’
‘किया किसका नहीं कल्याण उसने?
दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने?
जगत् के हेतु ही सर्वस्व खोकर,
मरा वह आज रण में नि:स्व होकर।’
‘उगी थी ज्योति जग को तारने को।
न जन्मा था पुरुष वह हारने को।
मगर, सब कुछ लुटा कर दान के हित,
सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित।’
‘दया कर शत्रु को भी त्राण देकर,
खुशी से मित्रता पर प्राण देकर,
गया है कर्ण भू को दीन करके,
मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके।’
‘युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह,
विपक्षी था, हमारा काल था वह।
अहा! वह शील में कितना विनत था?
दया में, धर्म में कैसा निरत था!’
‘समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये,
पितामह की तरह सम्मान करिये।
मनुजता का नया नेता उठा है।
जगत् से ज्योति का जेता उठा है!’