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हल्दीघाटी दसवाँ सर्ग Haldighati Sarg 10 – Shyam Narayan Pandey

Haldighati Sarg 10 by Shyam Narayan Pandey: पिछले सर्ग में आपने पढ़ा कि राणा प्रताप की सेना में इतना जोश और साहस था कि वे अपने-अपने हथियार के साथ सज्ज होकर युद्ध के लिए एकदम व्याकुल थे। तभी अचानक मुगलों की सेना के आने की कोलाहल सुनाई पड़ी और राणा ने अपने युद्ध का आह्वान किया।

Haldighati Poem के इस दसवें सर्ग में आप श्याम नारायण पाण्डेय जी के द्वारा पहाड़ी के वातावरण तथा वन्य-जीवन का अद्भूत वर्णन पढ़ेंगे और साथ ही ये भी पढ़ना रोचक होगा की किस तरह से चंद रणबाँकुरे भील मानसिंह को बंदी बना लेते हैं। महाकवि श्याम नारायण पाण्डेय जी हल्दीघाटी का दसवाँ सर्ग निर्जन एवं घने पर्वतीय वनों के वर्णन के साथ आरंभ करते हैं।

हल्दीघाटी दसवाँ सर्ग

📌काव्यहल्दीघाटी
📁सर्गदसवाँ
✍️रचयिताश्याम नारायण पाण्डेय
🏷️प्रकारखण्डकाव्य

सम्पूर्ण हल्दीघाटी: Haldighati Full Poem

हल्दीघाटी नौवां सर्ग: Haldighati Poem Sarg 9

Haldighati Sarg 10

तरू–वेलि–लता–मय,
पर्वत पर निर्जन वन था।
निशि वसती थी झुरमुट में,
वह इतना घोर सघन था॥1॥

पत्तों से छन–छनकर थी,
आती दिनकर की लेखा।
वह भूतल पर बनती थी,
पतली–सी स्वर्णिम रेखा॥2॥

लोनी–लोनी लतिका पर,
अविराम कुसुम खिलते थे।
बहता था मारूत, तरू–दल
धीरे–धीरे हिलते थे॥3॥

नीलम–पल्लव की छवि से,
थी ललित मंजरी–काया।
सोती थी तृण–शय्या पर,
कोमल रसाल की छाया॥4॥

मधु पिला–पिला तरू–तरू को,
थी बना रही मतवाला।
मधु–स्नेह–वलित बाला सी,
थी नव मधूक की माला॥5॥

खिलती शिरीष की कलियाँ
संगीत मधुर झुन–रून–झुन।
तरू–मिस वन झूम रहा था,
खग–कुल–स्वर–लहरी सुन–सुन॥6॥

माँ झूला झूल रही थी,
नीमों के मृदु झूलों पर।
बलिदान–गान गाते थे,
मधुकर बैठे फूलों पर॥7॥

थी नव–दल की हरियाली,
वट–छाया मोद–भरी थी,
नव अरूण–अरूण गोदों से,
पीपल की गोद भरी थी॥8॥

कमनीय कुसुम खिल–खिलकर,
टहनी पर झूल रहे थे।
खग बैठे थे मन मारे,
सेमल–तरू फूल रहे थे॥9॥

इस तरह अनेक विटप थे,
थी सुमन–सुरभि की माया।
सुकुमार–प्रकृति ने जिनकी,
थी रची मनोहर काया॥10॥

बादल ने उनको सींचा,
दिनकर–कर ने गरमी दी।
धीरे–धीरे सहलाकर,
मारूत ने जीवन–श्री दी॥11॥

मीठे-मीठे फल खाते,
शाखामृग शाखा पर थे।
शक देख–देख होता था,
वे वानर थे वा नर थे॥12॥

फल कुतर–कुतर खाती थीं,
तरू पर बैठी गिलहरियाँ।
पंचम–स्वर में गा उठतीं,
रह–रहकर वन की परियाँ॥13॥

चह–चह–चह फुदक–फुदककर,
डाली से उस डाली पर।
गाते थे पक्षी होकर,
न्योछावर वनमाली पर॥14॥

चरकर, पगुराती माँ को,
दे सींग ढकेल रहे थे।
कोमल–कोमल घासों पर,
मृग–छौने खेल रहे थे॥15॥

अधखुले नयन हरिणी के,
मृदु–काय हरिण खुजलाते।
झाड़ी में उलझ–उलझ कर,
बारहसिंघे झुंझलाते॥16॥

वन धेनु–दूध पीते थे,
लैरू दुम हिला–हिला कर।
माँ उनको चाट रही थीं,
तन से तन मिला–मिलाकर॥17॥

चीते नन्हें शिशु ले–ले,
चलते मन्थर चालों से।
क्रीड़ा करते थे नाहर,
अपने लघु–लघु बालों से॥18॥

झरनों का पानी लेकर,
गज छिड़क रहे मतवाले।
मानो जल बरस रहे हों,
सावन–घन काले–काले॥19॥

भैंसे भू खोद रहे थे,
आ, नहा–नहा नालों से।
थे केलि भील भी करते,
भालों से, करवालों से॥20॥

नव हरी–हरी दूबों पर,
बैठा था भीलों का दल।
निर्मल समीप ही निर्झर,
बहता था, कल–कल छल–छल॥21॥

ले सहचर मान शिविर से,
निझर्र के तीरे–तीरे।
अनिमेष देखता आया,
वन की छवि धीरे–धीरे॥22॥

उसने भीलों को देखा,
उसको देखा भीलों ने।
तन में बिजली–सी दौड़ी,
वन लगा भयावह होने॥23॥

शोणित–मय कर देने को,
वन–वीथी बलिदानों से।
भीलों ने भाले ताने,
असि निकल पड़ी म्यानों से॥24॥

जय–जय केसरिया बाबा,
जय एकलिंग की बोले।
जय महादेव की ध्वनि से,
पर्वत के कण–कण डोले॥25॥

ललकार मान को घेरा,
हथकड़ी पिन्हा देने को।
तरकस से तीर निकाले,
अरि से लोहा लेने को॥26॥

वैरी को मिट जाने में,
अब थी क्षण भर की देरी।
तब तक बज उठी अचानक,
राणा प्रताप की भेरी॥27॥

वह अपनी लघु–सेना ले,
मस्ती से घूम रहा था।
रण–भेरी बजा–बजाकर,
दीवाना झूम रहा था॥28॥

लेकर केसरिया झण्डा,
वह वीर–गान था गाता।
पीछे सेना दुहराती,
सारा वन था हहराता॥29॥

गाकर जब आँखें फेरी,
देखा अरि को बन्धन में।
विस्मय–चिन्ता की ज्वाला,
भभकी राणा के मन में॥30॥

लज्जा का बोझा सिर पर,
नत मस्तक अभिमानी था।
राणा को देख अचानक,
वैरी पानी–पानी था॥31॥

दौड़ा अपने हाथों से,
जाकर अरि–बन्धन खोला।
वह वीर–व्रती नर–नाहर,
विस्मित भीलों से बोला॥32॥

“मेवाड़ देश के भीलों,
यह मानव–धर्म नहीं है।
जननी–सपूत रण–कोविद,
योधा का कर्म नहीं है॥33॥

अरि को भी धोखा देना,
शूरों की रीति नहीं है।
छल से उनको वश करना
यह मेरी नीति नहीं है॥34॥

अब से भी झुक–झुककर तुम,
सत्कार समेत बिदा दो।
कर क्षमा–याचना इनको,
गल–हार समेत बिदा दो।”॥35॥

आदेश मान भीलों ने,
सादर की मान–बिदाई।
ले चला घट पीड़ा की,
जो थी उर–नभ पर छाई॥36॥

भीलों से बातें करता,
सेना का व्यूह बनाकर।
राणा भी चला शिविर को,
अपना गौरव दिखलाकर॥37॥

था मान सोचता, दुख देता
भीलों का अत्याचार मुझे।
अब कल तक चमकानी होगी,
वह बिजली–सी तलवार मुझे॥38॥

है कृपा–भार से दबा रहा,
राणा का मृदु–व्यवहार मुझे।
कल मेरी भयद बजेगी ही।
रण–विजय मिले या हार मुझे॥39॥

हल्दीघाटी ग्यारहवाँ सर्ग: Haldighati Poem Sarg 11

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