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हल्दीघाटी आठवाँ सर्ग Haldighati Sarg 8 – Shyam Narayan Pandey

Haldighati Sarg 8 by Shyam Narayan Pandey: पिछले सर्ग में आपने पढ़ा कि राणा प्रताप अपनी सेना के साथ पर्वत की उन्नत चोटी पर एकत्र हुए और उनका युद्ध के प्रति बढ़ाया और उन्होंने शपथ लिया की जब तक वे मेवाड़ धरा को शत्रुओं से मुक्त नहीं कर देंगे तब तक वह अपने नख-शिख नहीं काटेंगे, महलों में नहीं रहेंगे और अपना जीवन एक वनवासी की तरह व्यतीत करेंगे। राणा की यह भीष्म प्रतिज्ञा वैरी समाज के घर–घर में गूँज उठा और अकबर के कानों में घहड़ पड़ा।

Haldighati Poem का आठवाँ सर्ग सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस सर्ग में आप पढ़ेंगे की कैसे राणा प्रताप की सेना तैयार हो रही है। उस दिन वहाँ के पहाड़ियों पर मौसम कैसा है। प्रकृति कितनी मनोरम है। श्याम नारायण पाण्डेय जी लिखतें हैं की पर्वत भी हर्षोल्लासित था की आज का ये रण उसके छाती पर होगा। महाकवि श्याम नारायण पाण्डेय जी हल्दीघाटी के इस आठवें सर्ग को प्रथम-पूज्य भगवान गणेश जी की चरण-वंदना के साथ आरंभ करते हैं।

हल्दीघाटी आठवाँ सर्ग

📌काव्यहल्दीघाटी
📁सर्गआठवाँ
✍️रचयिताश्याम नारायण पाण्डेय
🏷️प्रकारखण्डकाव्य

सम्पूर्ण हल्दीघाटी: Haldighati Full Poem

हल्दीघाटी सातवाँ सर्ग: Haldighati Poem Sarg 7

Haldighati Sarg 8

गणपति के पावन पाँव पूज,
वाणी–पद को कर नमस्कार।
उस चण्डी को, उस दुर्गा को,
काली–पद को कर नमस्कार॥1॥

उस कालकूट पीनेवाले के,
नयन याद कर लाल–लाल।
डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता,
जिसके ताण्डव का ताल–ताल॥2॥

ले महाशक्ति से शक्ति भीख,
व्रत रख वनदेवी रानी का।
निर्भय होकर लिखता हूँ मैं,
ले आशीर्वाद भवानी का॥3॥

मुझको न किसी का भय–बन्धन,
क्या कर सकता संसार अभी।
मेरी रक्षा करने को जब,
राणा की है तलवार अभी॥4॥

मनभर लोहे का कवच पहन,
कर एकलिंग को नमस्कार।
चल पड़ा वीर, चल पड़ी साथ,
जो कुछ सेना थी लघु–अपार॥5॥

घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे,
रण–वाद्य सूरमा के आगे।
जागे पुश्तैनी साहस–बल,
वीरत्व वीर–उर के जागे॥6॥

सैनिक राणा के रण जागे,
राणा प्रताप के प्रण जागे।
जौहर के पावन क्षण जागे,
मेवाड़–देश के व्रण जागे॥7॥

जागे शिशोदिया के सपूत,
बापा के वीर–बबर जागे।
बरछे जागे, भाले जागे,
खन–खन तलवार तबर जागे॥8॥

कुम्भल गढ़ से चलकर राणा,
हल्दीघाटी पर ठहर गया।
गिरि अरावली की चोटी पर,
केसरिया–झंडा फहर गया॥9॥

प्रणवीर अभी आया ही था,
अरि साथ खेलने को होली।
तब तक पर्वत–पथ से उतरा,
पुंजा ले भीलों की टोली॥10॥

भैरव–रव से जिनके आये,
रण के बजते बाजे आये।
इंगित पर मर मिटनेवाले,
वे राजे–महाराजे आये॥11॥

सुनकर जय हर–हर सैनिक–रव,
वह अचल अचानक जाग उठा।
राणा को उर से लगा लिया,
चिर निद्रित जग अनुराग उठा॥12॥

नभ की नीली चादर ओढ़े,
युग–युग से गिरिवर सोता था।
तरू-तरू के कोमल पत्तों पर,
मारूत का नर्तन होता था॥13॥

चलते चलते जब थक जाता,
दिनकर करता आराम वहीं।
अपनी तारक–माला पहने,
हिमकर करता विश्राम वहीं॥14॥

गिरि–गुहा–कन्दरा के भीतर,
अज्ञान–सदृश था अन्धकार।
बाहर पर्वत का खण्ड–खण्ड,
था ज्ञान–सदृश उज्ज्वल अपार॥15॥

वह भी कहता था अम्बर से,
मेरी छाती पर रण होगा।
जननी–सेवक–उर–शोणित से,
पावन मेरा कण–कण होगा॥16॥

पाषाण–हृदय भी पिघल–पिघल,
आँसू बनकर गिरता झर–झर।
गिरिवर भविष्य पर रोता था,
जग कहता था उसको निझर्र॥17॥

वह लिखता था चट्टानों पर,
राणा के गुण अभिमान सजल।
वह सुना रहा था मृदु–स्वर से,
सैनिक को रण के गान सजल॥18॥

वह चला चपल निझर्र झर–झर,
वसुधा–उर–ज्वाला खोने को।
या थके महाराणा–पद को,
पर्वत से उतरा धोने को॥19॥

लघु–लघु लहरों में ताप–विकल,
दिनकर दिन भर मुख धोता था।
निर्मल निझर्र जल के अन्दर,
हिमकर रजनी भर सोता था॥20॥

राणा पर्वत–छवि देख रहा,
था, उन्नत कर अपना भाला।
थे विटप खड़े पहनाने को,
लेकर मृदु कुसुमों की माला॥21॥

लाली के साथ निखरती थी,
पल्लव–पल्लव की हरियाली।
डाली–डाली पर बोल रही,
थी कुहू–कुहू कोयल काली॥22॥

निझर्र की लहरें चूम–चूम,
फूलों के वन में घूम–घूम।
मलयानिल बहता मन्द–मन्द,
बौरे आमों में झूम–झूम॥23॥

जब तुहिन–भार से चलता था,
धीरे धीरे मारूत–कुमार।
तब कुसुम–कुमारी देख–देख,
उस पर हो जाती थी निसार॥24॥

उड़–उड़ गुलाब पर बैठ–बैठ,
करते थे मधु का पान मधुप।
गुन–गुन–गुन–गुन–गुन कर करते,
राणा के यश का गान मधुप॥25॥

लोनी लतिका पर झूल–झूल,
बिखरते कुसुम पराग प्यार।
हँस–हँसकर कलियाँ झाँक रही,
थीं खोल पंखुरियों के किवार॥26॥

तरू–तरू पर बैठे मृदु–स्वर से,
गाते थे स्वागत–गान शकुनि।
कहते यह ही बलि–वेदी है,
इस पर कर दो बलिदान शकुनि॥27॥

केसर से निझर्र–फूल लाल,
फूले पलास के फूल लाल।
तुम भी बैरी–सिर काट–काट,
कर दो शोणित से धूल लाल॥28॥

तुम तरजो–तरजो वीर, रखो
अपना गौरव अभिमान यहीं।
तुम गरजो–गरजो सिंह, करो
रण–चण्डी का आह्वान यहीं॥29॥

खग–रव सुनते ही रोम–रोम,
राणा–तन के फरफरा उठे।
जरजरा उठे सैनिक अरि पर,
पत्ते–पत्ते थरथरा उठे॥30॥

तरू के पत्तों से, तिनकों से
बन गया यहीं पर राजमहल।
उस राजकुटी के वैभव से,
अरि का सिंहासन गया दहल॥31॥

बस गये अचल पर राजपूत,
अपनी–अपनी रख ढाल–प्रबल।
जय बोल उठे राणा की रख,
बरछे–भाले–करवाल प्रबल॥32॥

राणा प्रताप की जय बोले,
अपने नरेश की जय बोले।
भारत–माता की जय बोले,
मेवाड़–देश की जय बोले॥33॥

जय एकलिंग, जय एकलिंग,
जय प्रलयंकर शंकर हर–हर।
जय हर–हर गिरि का बोल उठा,
कंकड़–कंकड़, पत्थर–पत्थर॥34॥

देने लगा महाराणा,
दिन–रात समर की शिक्षा।
फूँक–फूँक मेरी वैरी को,
करने लगा प्रतीक्षा॥35॥

हल्दीघाटी नौवां सर्ग: Haldighati Poem Sarg 9

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